माहौल पर भारी पड़ा भाजपा का माइक्रो मैनेजमेंट, हवा में ही रहा कांग्रेस का शोर

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चंडीगढ़। हरियाणा के जनादेश ने देश को फिर चौंकाया है। लगातार तीसरी बार ऐसी ऐतिहासिक जीत की कल्पना शायद भाजपा ने भी नहीं की होगी। 2014 में 47 सीटें मिलने पर उसने पहली बार हरियाणा में अपने दम पर सरकार बनाई थी। इस बार पार्टी वह आंकड़ा भी पार कर गई। सतह पर जो माहौल था, उसके आधार पर एग्जिट पोल से लेकर तमाम अनुमान कांग्रेस के पक्ष में थे। मगर, भाजपा ने चुपचाप, धीरे-धीरे माइक्रो मैनेजमेंट से मैदान मार लिया। उम्मीदवारों के चयन, प्रचार से लेकर जातीय समीकरणों को लेकर पार्टी की रणनीति काम कर गई। अति विश्वास में रही कांग्रेस जातीय ध्रुवीकरण की दोधारी तलवार का खुद ही शिकार हो गई। कांग्रेस की हार ने साबित कर दिया कि केवल सत्ता विरोध के सहारे चुनावी नैया पार नहीं लगाई जा सकती, संगठन और जमीनी स्तर पर काम जरूरी है। नतीजों ने साफ कर दिया है कि क्षेत्रीय दलों के लिए राज्य की सियासी जमीन अब उपजाऊ नहीं रही है।
2019 में भाजपा की सीटें घटकर 40 रह गई थीं। लोकसभा चुनाव से पहले ही भाजपा ने माहौल व मूड को भांपते हुए विधानसभा चुनाव के मद्देनजर मैनेजमेंट शुरू कर दिया था। साढ़े नौ साल सत्ता में रहने के बाद एंटी इंकम्बेंसी होना स्वाभाविक था, चाहे सरकार ने कितने भी काम क्यों न किए हों। जमीनी रिपोर्टों के साथ-साथ कहीं न कहीं संघ की फीडबैक के बाद भाजपा का पहला कदम था मनोहरलाल की जगह ओबीसी समुदाय के नायब सिंह सैनी को मुख्यमंत्री बनाने का। 56 दिन ही काम के मिलने की बात कहकर सैनी यह जताते रहे कि उन्हें पर्याप्त समय नहीं मिला। विपक्ष के पास उनके खिलाफ कहने को कुछ खास नहीं था। मनोहरलाल को सार्वजनिक तौर पर भाजपा ने प्रचार में शामिल नहीं किया, लेकिन जमीनी स्तर पर मैनेजमेंट में उनकी भूमिका कम नहीं हुई। इसका असर भी दिखा। नायब सीट बदलने के बाद भी जीत गए, हालांकि उनके आठ मंत्री और स्पीकर हार गए। चार मंत्रियों सहित 14 विधायकों के टिकट काटने और कई विधायकों की सीटें बदलने का जोखिम उठाते हुए भाजपा ने उम्मीदवारों के चयन में रणनीतिक कौशल दिखाया। बागियों को मनाने में सैनी व मनोहर के अलावा शीर्ष नेता भी जुटे। काफी हद तक मैनेज करने के अंत तक प्रयास हुए। सरकार के साढ़े नौ साल के कई काम गिनाए जा सकते थे, लेकिन भाजपा ने केवल निष्पक्ष ढंग से रोजगार देने को ही सबसे बड़ा मुद्दा बनाया। कांग्रेस राज में रोजगार में पर्ची-खर्ची चलती रही, इसे उसने बखूबी भुनाया। कांग्रेस के कई उम्मीदवारों के रोजगार बांटने के वादे करने वाले वीडियो भाजपा के लिए मददगार साबित हुए।

भाग्यविधाता साबित हुए गैर जाट मतदाता
कांग्रेस ने किसान-पहलवान-जवान का जो नैरेटिव गढ़ा था, वह सतही तौर पर प्रभावी नजर आता था, पर काम नहीं आया। दरअसल इस नैरेटिव के सहारे अधिकतर जाट वोटों का ध्रुवीकरण तो कांग्रेस ने कर दिया, लेकिन जैसे-जैसे यह हुआ, भाजपा सियासी िजंग को जाट बनाम गैर जाट बनाने में कामयाब रही। वहीं, कांग्रेस आम चुनाव में साथ आए दलित मतदाताओं का बिखराव रोक न सकी। मौन रहा गैर जाट मतदाता भाजपा का भाग्यविधाता साबित हुआ और कांग्रेस अपने ही चक्रव्यूह में फंस गई। भाजपा का बूथ स्तर तक सक्रिय संगठन यह प्रचारित करने में कामयाब रहा कि कांग्रेस आई तो दलितों के साथ फिर मिर्चपुर जैसी घटनाएं हो सकती हैं। नरेंद्र मोदी व अमित शाह ने भी मंचों से इस मुद्दे के अलावा कांग्रेसशासित हिमाचल जैसे प्रदेशों में कांग्रेस की गारंटियों के हाल पर जमकर प्रहार कर माहौल व जनता का मूड बदला।

हालात संभालने में कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व रहा नाकाम
गैर जाटों के साथ भेदभाव व ज्यादतियां होने और भाजपा सरकार के बिना पर्ची-खर्ची रोजगार देने जैसे प्रचार का जवाब कांग्रेस के बड़े नेताओं ने मंचों से तो दिया, पर जमीनी स्तर पर उसका संगठन ही नहीं था। साढ़े नौ साल से संगठनविहीन कांग्रेस महज इसी भरोसे रही कि उसे सत्ता विरोधी हवा का फायदा होगा। रही सही कसर पार्टी के नेताओं की गुटबंदी ने पूरी कर दी। टिकटों के बंटवारे से प्रचार तक केवल भूपेंद्रसिंह हुड्डा का ही वर्चस्व रहा। सीएम पद को लेकर तो कुमारी सैलजा व रणदीप सुरजेवाला दावेदारी तो जताते रहे, लेकिन प्रचार में पीछे रहे। कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व स्थिति को संभालने में नाकाम रहा।

आप जगह बनाने में नाकाम
दिल्ली और पंजाब में सरकार बनाने के बाद आम आदमी पार्टी हरियाणा की राजनीति में जगह बनाने में नाकाम रही है। आप में बड़े स्थानीय चेहरे के अभाव के कारण पार्टी की गारंटियां हरियाणा के लोगों को लुभा नहीं पाईं।

सिर्फ जातीय राजनीति असंभव
जननायक जनता पार्टी का सूपड़ा साफ होने और इंडियन नेशनल लोकदल के सिर्फ दो सीटों पर सिमटने से प्रदेश में क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व समाप्त होता दिख रहा है। 2005 से सत्ता से बाहर इनेलो का पिछले चुनाव में काफी खराब प्रदर्शन रहा था और जजपा तो पांच साल में ही खत्म होने की कगार पर पहुंच गई। जजपा के दुष्यंत चौटाला और इनेलो के अभय चौटाला खुद ही नहीं जीत पाए। स्पष्ट एजेंडा न होने और केवल जातीय आधार पर राजनीति करने का अंजाम इन दलों को भुगतना पड़ा है।

अब हरियाणा के हित की जिम्मेदारी
जनादेश कांग्रेस के लिए भी जिम्मेदारी लेकर आया है। भाजपा को भी अपनी उन नीतियों पर पुनर्विचार करना होगा, जिनके कारण विभिन्न वर्गों में कुछ अंसतोष रहा है। पोर्टल, परिवार पहचान पत्र, प्राॅपर्टी आईडी जैसी नीतियों पर आमराय से आगे बढ़ना होगा, जो सतही तौर पर लोगों को ठीक नहीं लगीं, लेकिन थीं जनहितकारी। यह जनादेश अपेक्षाओं की पूर्ति मांगेगा। कांग्रेस को भी जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका निभानी होगी क्योंकि पिछली बार से कहीं ज्यादा लोगों ने उसके प्रति भी आस्था जताई है।

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