मप्र में मंडरा रहा जल संकट, तेजी से कम हो रहा नदियों का पानी

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भोपाल। गर्मी की शुरुआत में ही मप्र की प्रमुख नदियों का पानी तेजी से कम हो रहा है। नदियों का सूखना एक चिंताजनक संकेत है। क्योंकि नदियों में पानी की कमी के कारण प्रदेश में जल संकट की स्थिति बन सकती है। यह स्थिति तब है जब नदियों को सूखने से बचाने और सालभर पानी से लबालब बनाए रखने के लिए राज्य सरकार कई जतन कर रही है। इसके लिए नदियों को जोडऩे वाले प्रोजेक्ट्स चलाए जा रहे हैं। केन और बेतवा नदियों को जोड़ा जा रहा है जिससे प्रदेश का बुंदेलखंड इलाका हमेशा के लिए जलसंकट से मुक्त हो जाएगा। वहीं दूसरी तरफ अत्यधिक जल दोहन और अवैध रेत उत्खनन के कारण नदियों के सूखने का खतरा बढ़ गया है।
जानकारी के अनुसार इस गर्मी में प्रदेश में 30 से अधिक नदियों पर सूखने का खतरा मंडरा रहा है। 3 लाख 8 हजार 245 वर्ग किमी क्षेत्र में बहने वालीं नर्मदा, बेतवा, सोन, ताप्ती, चंबल, सिंध, माही, पार्वती, धसान, केन, कूनो, क्षिप्रा जैसी नदियों से अत्यधिक जल दोहन और अवैध रेत उत्खनन के कारण यह खतरा पैदा हुआ है। जबकि, शहरी नदियां जमीन के लालच में अतिक्रमण का शिकार हो चुकी हैं। पारिस्थितिकी तंत्र के असंतुलन से भी नदियों का प्रवाह लगातार घट रहा है। अभी अप्रैल माह में ही सूखने का संकट है तो आने वाले दिनों में क्या स्थिति होगी, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।

अवैध खनन से टूट रही नदियों की सांस
जानकारों का कहना है कि मप्र में नदियों की बदहाली की सबसे बड़ी वजह रेत का अवैध खनन है। इस कारण प्रदेश की सात प्रमुख नदियों की 150 से अधिक सहायक नदियों की धारा फरवरी-मार्च में ही टूट गई थी। गुणवत्तायुक्त रेत की वजह से बेतवा, नर्मदा, सोन, सिंध, पार्वती और चंबल पर रेत माफिया का कब्जा है। कड़े नियम न होने और अवैध उत्खनन पर कोई प्रभावी कार्रवाई नहीं होने से रेत माफियाओं के हौंसले बुलंद हैं। जल शक्ति मंत्रालय की रिपोर्ट में मध्यप्रदेश के 317 विकासखंडों में से 26 को जल-शोषण की दृष्टि से अत्यधिक श्रेणी में रखा गया है। 2020-21 की ग्राउंड वाटर ईयरबुक के मुताबिक, प्रदेश में 63.24 प्रतिशत स्थानों पर भूमिगत जल स्तर गिरा है। जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय के चार प्राध्यापकों के संयुक्त अध्ययन में पाया गया कि भूजल दोहन हर साल 12 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है। कुल जल दोहन 62 प्रतिशत तक हो गया है। 2030 तक जलस्तर को 3.9 से 8.8 मीटर तक गिर सकता है। वहीं, उज्जैन की क्षिप्रा नदी को शुद्ध करने के लिए सरकार करोड़ों रुपये खर्च कर चुकी है लेकिन अभी भी सुधार उतना नहीं है, जितना होना चाहिए। इंदौर की कान्ह, ग्वालियर की स्वर्णरेखा और मुरार, जबलपुर की बंजर, होशंगाबाद की तवा, पलकमती, देनवा, रायसेन की तेंदुबी, बुंदी, सीहोर की ऊंटी, हथनी जैसी नदियां भी सूखने की कगार पर हैं।

इन नदियों पर मंडरा रहा संकट
मप्र में बहने वाली नदियों का जल प्रवाह धीरे-धीरे कम हो रहा है। 1990 से अब तक प्रदेश की आधा दर्जन नदियों के प्रवाह में भारी कमी आई है। जबकि कुछ नदियां तो इस मौसम में सूख रही है। नदियों के संरक्षण और जल प्रवाह को निरंतर रखने के लिए सरकार ने लिंक परियोजनाएं भी शुरू की, लेकिन कोई खास फायदे नहीं हुए। महू-इंदौर से इटावा तक 843 किमी लंबी चंबल नदी की मुरैना के पास धारा कमजोर पड़ गई है। पार्वती नदी जो आष्टा सीहोर से पाली श्योपुर तक 383 किमी लंबी है कि श्योपुर के पास धारा कम हो गई है। कारी नदी बेवलपुर-शिवपुरी से अंबाह-मुरैना तक 200 किमी लंबी है इसका मुरैना में बहाव घटा है। सिंध नदी सिरोंज से जालौन तक 470 किमी क्षेत्र में बहती है इसकी धारा टूटने लगी है। बावनथड़ी नदी सिवनी से निकलती है यह भी दम तोड़ रही है। तमस नदी मैहर और सतना से निकलकर सूखने की कगार पर है। इंदौर की कान्ह नदी अब नाला बन गई है। इसका पानी शिप्रा तक नहीं पहुंचता है। नर्मदा नहीं अमरकंटक से खंभात की खाड़ी तक 1312 किमी नदी है। यह नदी रेत माफिया के शिकंजे में है। ताप्ती नदी मुलताई से खंभात की खाड़ी तक 724 किमी लंबी है और जल विद्युत परियोजनाओं पर निर्भर है। चंबल (चर्मावती) नदी जानापाव (महू) से यमुना संगम तक 965 किमी लंबी है और संरक्षित है, लेकिन संकटग्रस्त है। बेतवा (वेत्रवती) नदी रायसेन से निकलती है और यूपी-एमपी में कुल 590 किमी बहती है। माही नहीं मप्र, राजस्थान, गुजरात में 580 किमी बहकर अरब सागर में मिलती है। सोन नदी अमरकंटक से गंगा तक 724 किमी लबी है। यह अवैध उत्खनन की शिकार है। स्वर्णरेखा व मुरार जैसी ऐतिहासिक नदियां, अब केवल कागजों में हैं।

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